पीएम मोदी ने प्रवासी श्रमिकों को किया निराश, अन्य राज्यों में तिल-तिल मरने को मजबूर लोगों की चर्चा तक नहीं की
लवकुश तिवारी
प्रधान संपादक
भगीरथ प्रयास समाचार पत्र एवं भगीरथ प्रयास न्यूज़ नेटवर्क : मंगलवार 12 मई सुबह प्रसार माध्यमों ने जब यह खबर दी कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी रात 8:00 बजे राष्ट्र के नाम संबोधन करने वाले हैं, उस समय लॉक डाउन के दौरान अन्य राज्यों के शहरों व महानगरों में फंसे लाखों श्रमिकों की आंखों में आशा की एक चमक आ गई थी. यह चमक इस बात को लेकर थी कि अब देश का प्रधानमंत्री उन्हें इस मुसीबत से छुटकारा देने की बात करेगा.उन्हें जल्द से जल्द उनके गांव पहुंचाने की बात करेगा किंतु इन मजदूरों और श्रमिकों की आशाओं पर उस वक्त तुषारापात हुआ जब देश के प्रधान सेवक ने अपने भाषण को खत्म कर धन्यवाद कर दिया और शहरों में करोना संक्रमण के बीच तिल-तिल कर मरने को मजबूर, श्रमिकों की इस परेशानी की चर्चा तक नहीं की.
यहां हम बात कर रहे हैं मुंबई, पुणे, दिल्ली और अहमदाबाद चेन्नई, कोलकाता जैसे बड़े शहरों के छोटे-छोटे कमरों में रहने वाले, देश के उन छोटे कर्णधारों की, जिनके श्रम पर इस देश की अर्थव्यवस्था की पहिया घूमती है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश में अचानक बिना किसी योजना के कोरोना संक्रमण को देखते हुए लाक डाउन की घोषणा कर दी. देश भर में यह तालाबंदी यदि हफ्ते 10 दिन या 15 दिन की होती तो भी गनीमत थी किंतु पहले ही सत्र में यह 21 दिनों का लॉक डाउन हुआ जिसने शहरों के 8 बाय 8 के एक ही कमरे में आठ-आठ लोगों को अनिश्चितकाल के लिए बिना किसी जुर्म के कैद कर दिया.
आरंभ में कहा गया यह कोरोना से जान बचाने के लिए उठाया गया प्रभावी कदम है. सही भी था . कोरोना जैसी विश्वव्यापी महामारी की वैक्सीन ना होने की वजह से लॉक डाउन ही एकमात्र विकल्प भी था किंतु कितने दिनों के लिए? इसका जवाब आज तक न तो भारत सरकार के पास है , ना ही दुनिया के किसी भी देश के पास है.
अब सवाल यह उठता है कि चीन के वुहान से निकले कोरोना रूपी इस जिन्न ने जब अमेरिका, इटली, ब्रिटेन, सहित सऊदी अरब और अन्य मुस्लिम देशों को अपनी चपेट में लेना शुरू किया तो क्या उस समय भारत सरकार और सरकारी सिस्टम में रहकर हर महीने मोटा वेतन लेने वाले लाल फीता शाह इस खतरे को भांप नहीं पाए या फिर इसे गंभीरता से नहीं लिया गया?
यहां सवाल यह भी उठता है कि चीन के वुहान में फंसे भारतीयों को लाने में जिस भारत सरकार ने अभूतपूर्व तत्परता दिखाई , उस भारत सरकार को अपने ही देश के शहरों और महानगरों में कोरोना संक्रमण का खतरा झेल रहे, रोजी रोटी गवां कर, भूख से छोटे-छोटे बच्चों की बिल-बिलाहट की तड़प से मजबूर हुए , दानशूर व्यक्तियों के दान पर निर्भर हो गए और वह भी नहीं पा रहे बावजूद इसके करोना संक्रमण का खतरा उठा रहे, कोरोना से सुरक्षा के दृष्टिकोण से अपने गृह राज्य और अपने गृह ग्राम जाने के लिए हजारों मील पैदल चलने वाले श्रमिकों और उनके छोटे-छोटे बच्चों, गर्भवती महिलाओं, बुजुर्ग माताओं और 80 की उम्र पार कर चुके वृद्ध बुजुर्गों की चिंता क्यों नहीं सता रही है.
लॉक डाउन के पहले चरण की घोषणा करने से पहले आखिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और इस देश के सिस्टम ने यह क्यों नहीं आकलन किया कि अचानक लंबे समय का लॉक डाउन करने से जो श्रमिक व अन्य लोग जगह-जगह फंस जाएंगे उनकी व्यवस्था कैसे होगी?
यह काफी हास्यास्पद व्यवस्था है कि जिन शहरों से अनेकों ट्रेन चलती थी बावजूद इसके ट्रेनों में आरक्षण उपलब्ध नहीं होता था, पैर रखने की जगह नहीं मिलती थी, अब उन्हीं शहरों से यदा-कदा या यूं कहें कि नाम मात्र के लिए श्रमिक स्पेशल ट्रेन चलाई जा रही है. इस श्रमिक स्पेशल गाड़ी में 11 सौ से 13-14 सौ श्रमिकों को उनके गृह राज्य भेजा जाता है.
सरकार ने शहरों में फंसे और 2 महीने से काम धंधे से बाहर कर दिए गए श्रमिकों के लिए राजधानी एक्सप्रेस की तर्ज पर नई दिल्ली से 15 शहरों के लिए एयर कंडीशन ट्रेन शुरू किया है इस ट्रेन का किराया सामान्य राजधानी एक्सप्रेस ट्रेन से भी ज्यादा रखा गया है क्योंकि इस में बैठने वाले लोगों से सोशल डिस्टेंसिंग करवाया जाएगा. जिसकी जेब पहले से ही खाली है वह श्रमिक भला इस ट्रेन में भारी-भरकम किराया भरकर कैसे यात्रा कर सकेगा? यह तो मजबूरी का मखौल उड़ाने जैसी व्यवस्था है? बेहतर होता इसकी जगह पर केंद्र सरकार सामान्य ट्रेन चलाती और उसका किराया या तो माफ करती या फिर न्यूनतम रखती किंतु सरकार को अपना खजाना भी तो भरना है.
सरकार इस व्यवस्था को सबसे बड़ी उपलब्धि बता रही है और इसके लिए लॉक डाउन में फंसे लोगों पर एहसान भी लाद रही है. यह लोकतंत्र की सबसे शर्मनाक तस्वीर सामने आ रही है.
यही वजह है कि लॉक डाउन के प्रथम चरण से देश के विभिन्न शहरों से श्रमिकों का जो पलायन शुरू हुआ था वह पैदल पलायन बदस्तूर आज भी जारी है. वास्तव में सरकारें श्रमिकों को यह विश्वास ही नहीं दिला पा रही हैं कि उन्हें उनके घर सुरक्षित भेजा जाएगा. श्रमिकों को भेजने की व्यवस्था ही इतनी लचर है जिस पर यकीन करने को वही तैयार हो पाता है जिसको सिस्टम से फोन और संदेश आता है कि आपका नंबर आ गया है अब आप मजदूरों के लिए शुरू की गई श्रमिक स्पेशल ट्रेन में सवार हो सकते हैं . बाकी सब अनिश्चितता के भंवर जाल में गोते खा रहे हैं.
अनिश्चितता के इसी भंवर जाल में गोते खाते हुए बड़ी संख्या में लोग पैदल ही परिवार और गृहस्थी सर पर लेकर हजारों मील दूर अपने गांव के लिए निकल पड़ते हैं तो बड़ी संख्या में लोग ट्रकों में चोरों की तरह और जानवरों की तरह ठुस कर, छुप कर जाने को मजबूर हैं.
इस दौरान असुरक्षित यात्रा करते हुए अब तक करीब 4 दर्जन से अधिक लोग अपने प्राण गंवा चुके हैं जबकि करोना लॉक डाउन के कुछ ऐसे भी मारे हैं जो सड़कों पर चलते हुए लूले लंगड़े हो गए हैं. करोना संक्रमण को रोकने के नाम पर अनेक राज्य सरकारों ने अन्य राज्यों में फंसे अपने राज्य के लोगों को अपने राज्य में लेने के लिए संबंधित राज्य सरकार के सामने ऐसी शर्तें रख दी है जिसे पूरा कर पाना उनके लिए संभव नहीं है.
यहां उदाहरण के लिए हम उत्तर प्रदेश की योगी सरकार को देख सकते हैं . योगी सरकार ने महाराष्ट्र सरकार से स्पष्ट कहा है कि वहां से जो भी लोग उत्तर प्रदेश आना चाहते हैं उनका कोविद-19 टेस्ट करवाकर उन्हें भेजा जाए.
उत्तर प्रदेश के लोगों को कोरोना संक्रमण से बचाने के लिए यह सही हो सकता है किंतु महाराष्ट्र सरकार के लिए यह टेस्ट करवा पाना संभव नहीं है क्योंकि यहां करीब 2000000 लोग ऐसे हैं जो रोजी रोटी के सिलसिले में उत्तर प्रदेश जैसे राज्य से आकर रह रहे हैं और अब यह गांव जाने के लिए आतुर हैं. ऐसी स्थिति में जबकि महाराष्ट्र सरकार यह टेस्ट करवा पाने में मजबूरी दर्शा चुकी है तो क्या उत्तर प्रदेश की सरकार महाराष्ट्र में रह रहे उत्तर प्रदेश के लोगों को तिल तिल कर मरने के लिए छोड़ देगी? यह एक बड़ा सवाल है.
उत्तर प्रदेश सरकार अब महाराष्ट्र से चुनिंदा लोगों को उत्तर प्रदेश आने का एक प्रकार का वीजा दे रही है. यूपी सरकार का यह वीजा उन्हीं खुशनसीबों को मिल रहा है जो रेड जोन और कंटेंट जोन से बाहर रहते हैं. मुंबई पुणे के रेड जोन और कंटेंट जोन में रहने वाले स्वस्थ लोगों को भी यदि रहते-रहते करोना संक्रमण हो जाए तो यूपी सरकार की बला से . योगी सरकार को इससे कुछ लेना देना नहीं है. पहली नजर में तो यही लगता है.
गौरतलब है कि यहां हमने उत्तर प्रदेश का एक उदाहरण दिया है अन्यथा देश के अनेक राज्यों की यही स्थिति है. राज्य सरकारों की कारगर नीतियों के अभाव का खामियाजा देशभर में प्रवासी श्रमिक भुगत रहे हैं. रोजी-रोटी छिन चुकी है जहां रह रहे हैं वह जगह असुरक्षित है भोजन भी समय से नहीं मिलता है जेब खाली हो चुकी है. कुछ शेष बचा है तो वह है एक अंतहीन तड़प.
आज देश के प्रधान सेवक प्रधान चौकीदार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने 20 लाख करोड़ रुपए के एक पैकेज की घोषणा की. यह घोषणा स्वागत योग्य है किंतु पीएम की इस घोषणा के साथ यदि शहरों में फंसे प्रवासी श्रमिकों और अन्य लोगों की भी चिंता प्रधानमंत्री ने किया होता और राज्य सरकारों को निर्देश दिया होता कि वह अपने यहां के लोगों को सुरक्षित अपने यहां युद्ध स्तर पर प्रयास करके ठीक उसी प्रकार ले आएं, जिस प्रकार विदेशों से एअरलिफ्टिंग कर लोगों को भारत लाया गया.
तो शायद आज देश का एक बड़ा वर्ग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी व्यवस्था का कायल हो गया होता किंतु दुर्भाग्यवश पीएम मोदी ने ऐसा नहीं किया और एक बार फिर लॉक डाउन के चौथे चरण की घोषणा कर दी . इस घोषणा को सुनकर शहरों में फंसे श्रमिकों के पैरों तले की जमीन खिसक गई है अब और मुखर रूप से आने वाले दिनों में इसकी तस्वीर सड़कों पर पलायन करते लोगों के रूप में देखने को मिलनी तय है.
यह, वह भयावह तस्वीर है जो भारत-पाकिस्तान बंटवारे के समय भी देखने को नहीं मिली थी. बेहतर होगा केंद्र सरकार और राज्य सरकारें यथाशीघ्र शहरों में फंसे लोगो को उनके घर और गांव पहुंचाने का प्रभावी प्रबंध करें. ऐसा ना होने की स्थिति में शहरों से गांव की ओर पलायन करते लोगों के इन दृश्यों को इतिहास के काले अध्याय के रूप में दर्ज किया जाना तय है.